Monday 27 April 2015

वो मेट्रो वाली आंटी

तबीयत थोड़ी नासाज थी। संयोग से मेट्रो में दाखिल होते ही सीट मिल गई। अमूमन ऐसा होता नहीं है। लेकिन उस दिन संयोग अच्छा था। मैं सीट पर बैठा हुआ था। एक महिला अपनी 18-20 साल की बेटी और बेटे के साथ मेट्रो में चढ़ी। मेरे सामने आकर बैठ गई। इधर-उधर ताकने के बाद बोली-बेटा मुझे बैठने दो। प्लीज। मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है। बेटा प्लीज।

क्या करता। संस्कार भारी पड़ गया। मैं उठ गया। वो बैठ गई। मैं उसके सामने खड़ा हो गया। तिलक नगर स्टेशन पर महिला की बगल वाली सीट खाली हुई। उसने तुंरत अपनी बेटी को वहां बैठने के लिए कह दिया। लड़की भी झट से बैठ गई। मैं सामने खड़ा था। खैर। टैगोर गार्डन आते-आते  उस लड़की की बगल वाली सीट खाली हुई। अचानक वो महिला एक्शन में आई। बेटी को बोली तुम जरा खिसक जाओ। खुद भी सरक गई। और अपनी सीट पर, जो मुझसे कुछ देर पहले उसने मांगा था, उस पर अपने बेटे को बैठा दिया। मैं ताकता ही रह गया। सामने खड़ा रहा।

 मेट्रो चलती रही। मैं कभी उस महिला को तो कभी उसकी बेटी को और कभी उसके बेटे को देखता रहा।
तब तक राजीव चौक मेट्रो स्टेशन आ चुका था। हंसते हुए तीनों निकल गए।

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